ऐ गुड़गाँव की ठंड, हमें और ना मार
आखिर कुछ तो इन कातिल हसीनाओं के लिए भी छोड़ दे।
तू पल पल हमें सताती है
जालिम तेरी है शीत लहर
ना जाने तू क्यूँ ढाती है
हर दिन अपना नया कहर।
घना बड़ा है तेरा कोहरा
कंपकपाता है मेरा चेहरा।
कान नाक सब हो गये बंद
आँच की लौ भी लगती मंद।
चेहरे में बस गयी है ठिठरन
काँपे शरीर का हर इक कण।
पर तू जिद्दी बनती है अगर,
तो अकड़ हमें भी आती है
डाल के टोपी और मफलर
ये इंसा तुझ पर इक्यासी हैं।
तू देख ज़रा नज़र उठाकर, उन मासूमों की आँखों में
जिनको ठण्ड नहीं लगती, हीरे अनमोल ये लाखों में।
तेरे डर को भूल कर, ये छोटे बच्चें आये हैं स्कूल
कोई किताब नहीं लाया, कोई गया है पेंसिल भूल
किसी की पैंट फटी है तो किसी के स्वेटर का उधड़ा है ऊन
पर तेरा जादू नहीं चलता उन पर, तोड़ पाये ना ये जूनून।
ऐ गुड़गाँव की ठण्ड,
तू छोड़ दे उन फूलों को, तू तो हमें ही ले मार
इन सर्दीली रातों से, हम अब मानते हैं हार।
ज़िंदा बचे तो हम उन कातिल हसीनाओं से दुबारा मर लेंगे
आखिर मर मर के जीना तो इस ज़िंदगी ने सिखा ही दिया है।
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